ये भगवान सिंह की एक कविता की आरम्भिक पंक्तियाँ हैं। उनका लेखन इसका प्रमाण है। जादू को नये जादू से नहीं, नाखून से नहीं, गम्भीर अध्ययन, चिन्तन और श्रम से, इस क्रम में साधनहीन होते हुए भी नई जमीन कुरेदते हुए नाखून में भरी मट्टी से नया जादुई संसार रचने का प्रयत्न, जो पुराने जादू के सिर पर चढ़कर बोलता है। पुराणों के जादुई आभालोक के भीतर से ऐतिहासिक सत्य की खोज उनके शोध ग्रंथों और निबंधों में तो देखा ही जा सकता है उनके उपन्यासों में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। अपने अपने राम एक नयी रामकथा नहीं है उस वास्तविक राम की खोज है जो कभी पँवारे के रूप में रचा गया होगा। यह वर्तमान के उस सत्य का भी साक्षात्कार है जिसे राम और रमैया की दुल्हन की आड़ में बाजार लूटने के प्रयत्नों में सामने आ रहा है। यह उस वर्णवाद का भी जवाब है जिसके समर्थन में राम तक को इस्तेमाल कर लिया गया, जिनके जीवन का एक-एक आचरण उसे तोड़ने और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट से भरा है। यह उपन्यास नहीं है, गद्य में लिखा गया एक महाकाव्य है। उपन्यास की बारीकियों का इसमें अभाव है। महाकाव्य की गरिमा का इसमें इतना सफल निर्वाह है कि पाठक को लगे, प्रामाणिक रामायण तो वह पहली बार पढ़ रहा है। यह अपने अतीत को और उसके चतुर्दिक रचे गये आभा-मंडल को भेद कर एक नया आलोकमंडल तैयार करने का प्रयत्न है। इसमें वे सच्चाइयाँ उजागर होती हैं जो आभामंडल में दबी रह गयी थीं।